
सनातन परम्परा रही है
उपभोक्ता हितों की रक्षा
चन्द्रगुप्त मौर्य (इस्वी पूर्व 322 से 288) के मंत्री चाणक्य द्वारा अपने ‘कौटिल्य का अर्थशास्त्र’ में लिखा गया पूरा का पूरा अध्याय तथा अथर्ववेद की उक्ति उपभोक्ता और बाजार की क्रियाओं पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां हैं।
‘इमा मात्रा मिमीमहे यथ परा न मासातै’
अर्थात् वस्तुस्थिति और मापतौल में गड़बड़ी न करें। इसी प्रकार मनुस्मृति की निम्नलिखित पंक्तियां भी दर्शाती हैं-
प्रकाशवंका नाना पण्योपजीविनः.......
तुलामान प्रतिमान सर्वं च स्यात्सुलक्षितम्,
षटसु षटसु च मासेषु पुनरेव परीक्षयेत्।
अर्थात् व्यापारियों की प्रत्यक्ष घोखाघड़ी और शासकों के उन पर नियंत्रण रखने हेतु हर छठे महिने बाटों का परीक्षण.....इससे स्पष्ट है कि भारत में उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा एक सनातन परम्परा रही है तथा हर व्यक्ति किसी न किसी स्तर पर उपभोक्ता होते हुए भी उपभोक्ता उद्गार उसी शोषित और पीड़ित की रक्षा की और इंगित करते हैं, जो सदा से पीड़ित रहा है, आज भी पीड़ित है तथा जिसकी रक्षा के लिए इस देश में तीन दर्जन से अधिक कानून बने हुए हैं। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 तथा उसके समस्त प्रावधान इसी दिशा में आर्थिक प्रतिद्वन्दिता के इस युग में जबकि पूर्ववत 'A merchaint is more Conscious (objectvely) than any consumer (subjectivetly) buying from him अत्यधिक महत्वपूर्ण कानून है। यह दुर्भाग्य ही है कि उपभोक्ता आज भी अपने अधिकारो और कर्तव्यों के प्रति सजग नहीं है। अतः सरकार के सत्प्रयास वांछित प्रभाव नहीं दिखा पा रहे हैं क्योंकि 'information itself is mostly useless unless it is most effectively Communicated' अतः सारे प्रावधानों की सुनिश्चित जानकारी आम उपभोक्ताओं तक, जो सुदूर देहातों में बिखरा पड़ा है, हर पंचायत और विद्यालय के माध्यम पहुंचाने का संकल्प हम और आप द्वारा किया जाए, तो इसके अधिक बेहतर परिणाम सामने आ सकेंगे। कानूनों की पूरी जानकारी उपलब्ध हो जाने पर भी न्याय प्राप्ति हेतु संगठित प्रयास अपेक्षित होते हैं। अतः उपभोक्ता न्यायालयों से त्वरित न्याय प्राप्त करने का प्रावधान भी त्रिस्तरीय न्याय प्रणाली के द्वारा संभव कर दिया गया है और खर्चीले सिविल न्यायालयों की जटिल और लम्बी प्रक्रिया से उसे छुटकारा मिल रहा है। आम उपभोक्ताओं की प्रभावी सेवा करने वाले व्यक्तियों और संगठनों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार द्वारा पुरस्कार भी दिए जा रहे हैं। खाद्य पदार्थों की शुद्धता जांचने हेतु प्रयोगशालाओं की स्थापना के लिए आवश्यक धन राशि उपभोक्ता संरक्षण निधि से तथा भूखण्ड स्थानीय निकायांे की और से उपलब्ध करवाने का प्रावधान है। भारत सरकार आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गोंं को जीवन की मूलभूत आवश्यक सामग्री उपलब्ध करवाने हेतु अरबों रूपये का परिदान दे रही है तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के काफी दवाब के बाद भी कईं मामलों में सब्सिडी नहीं घटाई गई है। फिर भी यदि मुद्रास्फीति और वस्तुओं के मूल्य बढ़ते ही जा रहंे हैं, तो यह स्पष्ट है कि सारी प्रक्रिया इकतरफी है। अर्थात् ज्ञानरूपी नेत्र यानि कानून तो उपलब्ध है लेकिन क्रिया रूपी पैरों के अभाव में सबकुछ गड़बड़ा गया है। कानून पंगला है अतः इसे चलाने के लिए क्रिया रूपी पैरों की आवश्यकता है और वे पैर शोषित और पीड़ित उपभोक्ता ही हैं। जागृत और जिम्मेदार उपभोक्ता आज के भारत की हीं नहीं बल्कि दुनिया की पहली आवश्कता है। बढ़ती हुई जनसंख्या, ग्रीन हाउस इफेक्ट और प्रदूषण विभिन्न स्वरूप तथा तज्जन्य प्राणी पर मंडराता खतरा, एक तथा घटते हुए स्त्रोत दूसरी बड़ी चुनौती है। इस चुनौती का मुकाबला करने की दिशा में यह एक कदम है। देश में हजारों उपभोक्ता संगठन हैं, उपभोक्ता हितों से संबंधित साहित्य भी प्रकाशित हो रहा है और सरकार द्वारा भी समय-समय पर इनका प्रचार-प्रसार करवाया जा रहा है, लेकिन आवश्यकता है, इन प्रयासों को समन्वित और संगठित करने की। इसके लिए आम उपभोक्ता को ही जागृत होकर अपने हितों की रक्षा के प्रयास करने होंगे क्योंकि यह एक कटू सत्य ही तो है कि जिस तरह नाग पंचमी के दिन तो नाग की पूजा की जाती है और अन्य दिनों में उसे लाठी से मारकर ही भगाया जाता है, ठीक उसी तरह उपभोक्ता और विश्व उपभोक्ता दिवस को तो उपभोक्ताओं के हितों के लिए किए जा रहे प्रयासों का गुणगान सरकार और स्वयंसेवी संगठन ढोल पीट-पीटकर करते हैं, लेकिन आम दिन बेचारे उपभोक्ता की वास्तविक सुध लेने वाला कोई दिखता ही नहीं है और वह रोज की भांति ठगा रह जाता है।
‘इमा मात्रा मिमीमहे यथ परा न मासातै’
अर्थात् वस्तुस्थिति और मापतौल में गड़बड़ी न करें। इसी प्रकार मनुस्मृति की निम्नलिखित पंक्तियां भी दर्शाती हैं-
प्रकाशवंका नाना पण्योपजीविनः.......
तुलामान प्रतिमान सर्वं च स्यात्सुलक्षितम्,
षटसु षटसु च मासेषु पुनरेव परीक्षयेत्।
अर्थात् व्यापारियों की प्रत्यक्ष घोखाघड़ी और शासकों के उन पर नियंत्रण रखने हेतु हर छठे महिने बाटों का परीक्षण.....इससे स्पष्ट है कि भारत में उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा एक सनातन परम्परा रही है तथा हर व्यक्ति किसी न किसी स्तर पर उपभोक्ता होते हुए भी उपभोक्ता उद्गार उसी शोषित और पीड़ित की रक्षा की और इंगित करते हैं, जो सदा से पीड़ित रहा है, आज भी पीड़ित है तथा जिसकी रक्षा के लिए इस देश में तीन दर्जन से अधिक कानून बने हुए हैं। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 तथा उसके समस्त प्रावधान इसी दिशा में आर्थिक प्रतिद्वन्दिता के इस युग में जबकि पूर्ववत 'A merchaint is more Conscious (objectvely) than any consumer (subjectivetly) buying from him अत्यधिक महत्वपूर्ण कानून है। यह दुर्भाग्य ही है कि उपभोक्ता आज भी अपने अधिकारो और कर्तव्यों के प्रति सजग नहीं है। अतः सरकार के सत्प्रयास वांछित प्रभाव नहीं दिखा पा रहे हैं क्योंकि 'information itself is mostly useless unless it is most effectively Communicated' अतः सारे प्रावधानों की सुनिश्चित जानकारी आम उपभोक्ताओं तक, जो सुदूर देहातों में बिखरा पड़ा है, हर पंचायत और विद्यालय के माध्यम पहुंचाने का संकल्प हम और आप द्वारा किया जाए, तो इसके अधिक बेहतर परिणाम सामने आ सकेंगे। कानूनों की पूरी जानकारी उपलब्ध हो जाने पर भी न्याय प्राप्ति हेतु संगठित प्रयास अपेक्षित होते हैं। अतः उपभोक्ता न्यायालयों से त्वरित न्याय प्राप्त करने का प्रावधान भी त्रिस्तरीय न्याय प्रणाली के द्वारा संभव कर दिया गया है और खर्चीले सिविल न्यायालयों की जटिल और लम्बी प्रक्रिया से उसे छुटकारा मिल रहा है। आम उपभोक्ताओं की प्रभावी सेवा करने वाले व्यक्तियों और संगठनों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार द्वारा पुरस्कार भी दिए जा रहे हैं। खाद्य पदार्थों की शुद्धता जांचने हेतु प्रयोगशालाओं की स्थापना के लिए आवश्यक धन राशि उपभोक्ता संरक्षण निधि से तथा भूखण्ड स्थानीय निकायांे की और से उपलब्ध करवाने का प्रावधान है। भारत सरकार आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गोंं को जीवन की मूलभूत आवश्यक सामग्री उपलब्ध करवाने हेतु अरबों रूपये का परिदान दे रही है तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के काफी दवाब के बाद भी कईं मामलों में सब्सिडी नहीं घटाई गई है। फिर भी यदि मुद्रास्फीति और वस्तुओं के मूल्य बढ़ते ही जा रहंे हैं, तो यह स्पष्ट है कि सारी प्रक्रिया इकतरफी है। अर्थात् ज्ञानरूपी नेत्र यानि कानून तो उपलब्ध है लेकिन क्रिया रूपी पैरों के अभाव में सबकुछ गड़बड़ा गया है। कानून पंगला है अतः इसे चलाने के लिए क्रिया रूपी पैरों की आवश्यकता है और वे पैर शोषित और पीड़ित उपभोक्ता ही हैं। जागृत और जिम्मेदार उपभोक्ता आज के भारत की हीं नहीं बल्कि दुनिया की पहली आवश्कता है। बढ़ती हुई जनसंख्या, ग्रीन हाउस इफेक्ट और प्रदूषण विभिन्न स्वरूप तथा तज्जन्य प्राणी पर मंडराता खतरा, एक तथा घटते हुए स्त्रोत दूसरी बड़ी चुनौती है। इस चुनौती का मुकाबला करने की दिशा में यह एक कदम है। देश में हजारों उपभोक्ता संगठन हैं, उपभोक्ता हितों से संबंधित साहित्य भी प्रकाशित हो रहा है और सरकार द्वारा भी समय-समय पर इनका प्रचार-प्रसार करवाया जा रहा है, लेकिन आवश्यकता है, इन प्रयासों को समन्वित और संगठित करने की। इसके लिए आम उपभोक्ता को ही जागृत होकर अपने हितों की रक्षा के प्रयास करने होंगे क्योंकि यह एक कटू सत्य ही तो है कि जिस तरह नाग पंचमी के दिन तो नाग की पूजा की जाती है और अन्य दिनों में उसे लाठी से मारकर ही भगाया जाता है, ठीक उसी तरह उपभोक्ता और विश्व उपभोक्ता दिवस को तो उपभोक्ताओं के हितों के लिए किए जा रहे प्रयासों का गुणगान सरकार और स्वयंसेवी संगठन ढोल पीट-पीटकर करते हैं, लेकिन आम दिन बेचारे उपभोक्ता की वास्तविक सुध लेने वाला कोई दिखता ही नहीं है और वह रोज की भांति ठगा रह जाता है।